अगर भारत और चीन में युद्ध हुआ, तो कौन जीतेगा?

भारत और चीन के बीच डोकलाम विवाद का जन्म इसलिए हुआ क्योंकि क्योंकि चीन इस जगह पर सड़क बनाने की कोशिश कर रहा है जो कि भारत के 'चिकेन नेक' इलाके के पास पड़ता है. अगर चीन यहाँ सड़क बना लेता है तो 'चिकेन नेक' सीधे चीन की तोपों की रेंज में आ जाएगा और भारतीय सेना उत्तर-पूर्व केइलाके में कमजोर पड़ जाएगी. दोनों देशों के बीच युद्ध होने की हालत में अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और यूरोप के देश भारत का साथ दे सकते हैं.

भारत और चीन के बीच डोकलाम क्षेत्र का विवाद शांत होने का नाम नही ले रहा है. दरअसल इसका सबसे बड़ा कारण चीन की राज्य विस्तार नीति है जिसके माध्यम से वह एशिया में अपनी धाक जमाना चाहता है. 

“ऐसा कोई बचा नही जिसको मैंने ठगा नही” भारत इस विवाद में इसलिए आ गया है क्योंकि चीन इस जगह पर सड़क बनाने की कोशिश कर रहा है जो कि भारत की सुरक्षा के लिए खतरा पैदा कर सकता है. भारत इसलिए भी चिंतित है क्योंकि भूटान का यह इलाका 'चिकेन नेक' के पास पड़ता है. 'चिकेन नेक' वह इलाका है जो उत्तर-पूर्व भारत को बाकी देश से जोड़ता है. 

अगर चीन यहाँ सड़क बना लेता है तो 'चिकेन नेक' सीधे चीन की तोपों की रेंज में आ जाएगा. फिलहाल इस इलाके में भारत मजबूत स्थिति में है. हमारी सारे पोस्टें ऊंचाई पर हैं जबकि चीन यहां नीचे है. पहाड़ी इलाकों में यह रणनीतिक तौर पर काफी फायदेमंद होता है. यहां भारत के पैर उखाड़ने के लिए चीन को बहुत मुश्किल उठानी होगी.ली कहावत चीन के ऊपर बिलकुल सटीक बैठती है.

चीन का कोई भी पडोसी देश ऐसा नही है जिसके साथ उसका सीमा विवाद न रहा हो. उदाहरण के तौर पर तिब्बत, इंडोनेशिया, ताइवान, सिंगापुर, भारत, जापान और चीनी ताइपे इत्यादि के साथ उसके कटु सम्बन्ध गिनाये जा सकते हैं. चीन पूरे दक्षिण चीन सागर पर कब्ज़ा करके एशिया महाद्वीप में अपनी धाक जमाना चाहता है और उसकी इस राह में भारत और जापान दो बड़े बाधक है.

विवाद की जड़ क्या है?

भारत और चीन के बीच सीमा विवाद का कारण बना “डोका-ला” इलाका; जो कि भारत के सिक्किम और भूटान के बीच “चुम्बी घाटी” क्षेत्र में स्थित है. चीन में इसे “डांगलांग” और भूटान में “डोकलाम” के नाम से जाना जाता है. वास्तव में डोकलाम का विवाद मुख्य रूप से चीन और भूटान के साथ है और 1984 से लेकर अभी तक दोनों देशों के बीच कई वार्ताएं हो चुकी हैं लेकिन समाधान नही निकला है.

अगर युद्ध हुआ तो क्या होगा?

इस पूरे घटना क्रम पर नजर रखने वालों का मानना है कि चीन के कुछ विशेषज्ञ भारत के साथ एक छोटा युद्ध छेड़ने के पक्ष में हैं ताकि भारत को सबक सिखाया जा सके. वहीँ दूसरी ओर कुछ लोगों को मानना है कि युद्ध का रास्ता छोटा न होकर बड़ा बन सकता है क्योंकि अमेरिका जापान, और पूरा यूरोप और ऑस्ट्रेलिया चीन के खिलाफ हो जायेंगे.

कौन देश किसका साथ देगा?


अमेरिका:

वॉशिंगटन स्थित सेंटर फॉर स्ट्रैटिजिक ऐंड इंटरनैशनल स्टडीज के सीनियर फेलो जैक कूपर ने कहा कि चीन की बढ़ती ताकत के खिलाफ अमेरिका एक संतुलन बनाने की कोशिश कर रहा है और भारत इसमें एक अहम भूमिका अदा कर सकता है. 

उन्होंने कहा, 'चीन अगर भारत के खिलाफ अपने दावों पर कायम रहता है, तो एक तरह से वह चीन-विरोधी गठबंधन के बनने का रास्ता साफ करेगा. ऐसे में मुझे लगता है कि चीन समझदारी दिखाते हुए मौजूदा संकट को खत्म करने की दिशा में काम करेगा और किसी भी हिंसक रास्ते से बचना चाहेगा.'

विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि चीन और अमेरिका के बीच बढ़ती सैन्य प्रतिस्पर्धा ने अमेरिका को हाल के दिनों में काफी परेशान किया है रूस के बाद किसी और देश ने उसे सीधे चुनौती दी है. ऐसे में अगर भारत और चीन के बॉर्डर पर सैन्य संघर्ष होता है तो अमेरिका इस क्षेत्र में अपनी समुद्री मौजूदगी को बढ़ा सकता है और वह इस मौके की तलाश में बैठा है.



Image source:Indian Defence News

होनोलूलू में एशिया-पसिफिक सेंटर फॉर सिक्यॉरिटी के प्रोफेसर मोहन मलिक ने कहा, 'अगर मौजूदा विवाद युद्ध में तब्दील होता है, तो अमेरिका भारत की सेना को खुफिया सूचना से लेकर लॉजिस्टिकल सपॉर्ट मुहैया करा सकता है.' यह भी हो सकता है कि अमेरिका निगरानी के लिए हिंद महासागर में एक एयरक्राफ्ट करियर और पनडुब्बियां भेज दे और चीन पर दबाव बनाने की कोशिश करे.'

रूस:

जेएनयू के सेंटर फोर रसियन में प्रोफ़ेसर संजय पांडे ने बीबीसी से बातचीत में कहा कि 1962 के युद्ध को रूस ने भाई और दोस्त के बीच की लड़ाई कहा था. रूस ने चीन को भाई कहा था और भारत को दोस्त.

1962 के युद्ध में भी रूस के लिए किसी देश का पक्ष लेना आसान नहीं था और आज जब दोनों देशों के बीच तनाव है तब भी उसके लिए किसी के साथ खड़ा रहना आसान नहीं है. भारत पिछले 10 सालों में अमेरिका के काफी नजदीक आया है और 2017 में दोनों देशों के बीच का व्यापार 120 अरब डॉलर का हो गया है. 

यही कारण है कि भारत और रूस के सम्बन्ध अब जवाहर लाल नेहरु के समय जितने मजबूत नही हैं. यदि ऐसी परिस्थितियां बनी कि रूस को किसी का साथ देना ही पड़े हो वह अपने भाई अर्थात चीन का साथ ही देगा.

यहाँ पर यह बताना भी जरूरी है कि 1969 आमूर और उसुरी नदी के तट पर रूस और चीन के बीच एक युद्ध भी हो चुका है. इस युद्ध में रूस ने चीन पर परमाणु हमले की धमकी तक दे डाली थी. इसमें चीन को क़दम पीछे खींचने पड़े थे.

जापान: पूरी दुनिया को पता है कि चीन के साथ जापान के सम्बन्ध कितने खट्टे रहे हैं. जापान,भारत का एक नंबर का दोस्त है और चीन का दुश्मन. इस कारण “दुश्मन का दुश्मन” दोस्त होगा और जापान भारत का साथ देगा. इसके पहले भी जापान भारत को “परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह” में शामिल करने का समर्थन करने के साथ साथ परमाणु ईंधन की आपूर्ति का समझौता भी कर चुका है. ध्यान रहे कि भारत अमेरिका और जापान ने बंगाल की खाड़ी में अभी हाल में संयुक्त "मालाबार युद्धाभ्यास" भी किया था.

ऑस्ट्रेलिया:

ऑस्ट्रेलिया की विदेश मंत्री जूली बिशप हाल ही में भारत दौरे पर आईं थी. उन्होंने यहां पर साफ तौर पर कहा था कि चीन को डोकलाम विवाद पर संयम बरतना चाहिए, और भारत से बात करनी चाहिए. इसके अलावा ऑस्ट्रेलिया दक्षिणी चीन सागर को लेकर चीन की दादागिरी को लेकर भी चेतावनी जारी कर चुका है. इस मुद्दे पर ऑस्ट्रेलिया ने चीन की सैन्य महत्वकांशाओं का विरोध किया था. ध्यान रहे कि ऑस्ट्रेलिया भारत को परमाणु ईंधन की आपूर्ति करता है और परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में भारत का समर्थन भी करता है.

यूरोपीय देश

सामन्यतः सभी यूरोपीय देशों के ऊपर अमेरिका का प्रभाव माना जाता है और ये देश वही करते हैं जो कि अमेरिका कहता है. यूरोप के कुछ ताकतवर देश जैसे फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन भी चीन के मुद्दे पर भारत के साथ आ सकते हैं. इन सभी देशों के साथ भारत के मधुर सम्बन्ध रहे हैं और इन सब देशों ने सयुंक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता का समर्थन किया है. ज्ञातव्य है कि फ़्रांस ने हाल ही में भारत को 36 राफेल फाइटर विमान बेचने का सौदा किया है.



इस प्रकार पूरे विश्लेषण के बाद यह बात साफ़ हो जाती है कि यदि युद्ध होता है तो इसका परिणाम पूरी तरह से चीन के खिलाफ जायेगा. चीन का पक्ष लेने वालों में रूस, पाकिस्तान, ईरान और उत्तर कोरिया जैसे ही देश ही होंगे इससे ज्यादा कुछ नही. शायद इस प्रकार का विश्लेषण चीन भी कर चुका है यही कारण है कि सीमा पर आक्रामक रुख अख्तियार करने वाला चीन अभी तक मुद्दे को बातचीत से हल होने का इंतजार कर रहा है.

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